इंडियन पोस्टल डिपार्टमेंट की माशा अल्लाह जितनी भी तारीफ़ की जाए
अलबत्ता कम ही होगी। खतों में छुपे हर
कहानी को हमेशा से ये उनके अपने सही पते पर पहुँचाते आये है। हाँ, ये और बात है कि कई दफे, लाल, काली, नीली रंगों वाली मोहरों
से सजे ये ख़त, अपने मुख्तलिफ ठिकानों पर नहीं पहुँच पाते पर आज इनकी यही छोटी सी भूल आप सबों को
काफी मुतासिर करेगी।
महानगरों की अपनी एक अलग ही दुनिया होती है,
सुबह के शोर शराबें तले जगती यहाँ की जिंदगियाँ, दिन के मेट्रो की धक्कों में
कराहता ख़्वाब और शाम की रंग-बिरंगी लाइटों के चकाचोंध में खोता इंसान। कब साँसें
लेता है, पता ही नहीं चलता। बस भागते रहते है भीड़ की
शक्ल इख्तियार करके खुद की तलाश में और इस जद्दो जहद से इन्हें जो हासिल होता है।
वो है, खुद के तहजीब और विरासतों का खंडहर, जिसमें इन्हें सिवाय सूनेपन का कुछ और
नहीं मिलता। ऐसी ही जिंदगी को जी रहा है केदार।
जिसे इस दुनिया में लाने के लिए, उसके माँ
बाबूजी ने न जाने कितने मंदिर और शिवालयों में घंटे टाँगे थे। कल रात के भारी भरकम
पार्टी के बाद, दिन के बारह बजे जब उसकी आँखें खुली तो अपने ही घर की हालत उसे
किसी कबाड़ खाने से कम नहीं लगी। अय्याशी और वेस्टर्ननाइज कल्चर की वो रंगीनियाँ
फर्श पर बिखरी पड़ी थी। जिसे बयाँ सिर्फ मौज मस्ती से करे तो कम होगी, न जाने कितने
अधजली बुझी सिगरेट, शैम्पैन की बोत्तलें
और जिस्म की उतारी हुई गर्मी। जिसमें तो कितने यूज्ड और कितने अनयूज्ड थे। अचानक उसके
मोबाइल फोन पर घंटी बजती है। हैंग ओवर की हालत में केदार सर को दबाये कॉल रिसीव करता
है, “ हेल्लो केदार, यू हैव टू कम इन ऑफिस राईट नाउ” सामने से यही चंद शब्द आये थे। इससे
पहले की केदार कुछ कहता फोन कट चूका था। कॉल किसी और का होता तो वो शायद इगनोर भी
कर देता, मगर कॉल तो उसके कंपनी के जनरल मेनेजर की थी। सो उसे जाना ही पड़ेगा।
दिल्ली में मानसून कदम रख चूका था। सुबह से
रुक-रुक कर हो रही बारिश ने यहाँ के ट्रैफिक को रोक सा दिया था। घंटों के मानसूनी टौर्चेर
भरे सफ़र के बाद जब केदार अपने ऑफिस पहुँचा, तो उसे पता चला। जो मीटिंग होनी थी, वो
बारिश के कारण कैंसिल हो चुकी है। एक अदबी अफ़सोस के साथ बडबडाया “ओह शिट, मुझे बीच रास्ते से फ़ोन कर
लेना चाहिए था” और फिर वापस घर के लिए हो लिया। बारिश
रुक गई थी पर काले बादल अभी भी आसमान में घुमुड-घुमुड कर बरसने को बेताब थे।
वसंतकुंज के पाकेट-1 फ्लैट नंबर-131 के पते
वाले, अपने फ्लैट के दरवाजे को खोलते ही उसकी नज़र जब फर्श पर पड़ी ख़ाकी कलर के
लिफाफे पर गई तो उसे देखकर, केदार को कुछ खास एहसास नहीं हुआ। उसके मन में उस
लिफाफे को लेकर बस हल्की सी फीलिंग हुई कि “होगा कोई क्रेडिट कार्ड का बिल” और इसी हल्की सी फीलिंग के साथ फ़र्श
से लिफाफे को उठा कर पास के टेबल पर रख दिया। जहाँ न जाने और कितने ऐसे लिफाफे
पहले से पड़े थे। जिसे उसने अब तक पढ़ने की जेहमत तक नहीं उठाई थी। रात की अय्याशीयों
का नशा उसपर अब तक थोड़ा-थोड़ा था। सो सर में हल्की-हल्की दर्द महसूस हुई तो, उसे
कॉफ़ी पीने का मन हुआ। किचन जाकर कॉफ़ी बनाया और हॉल में लगे लकड़ी के आराम कुर्सी पर
आ कर बैठ गया। कॉफ़ी की हर चुस्की के साथ हैंगओवर की बचीखुची शुरुर उतर सी रही थी। जब
कॉफ़ी समाप्त हुई, तो वहीँ पास लिफाफे वाले टेबल पर कप को रख दिया।
बारिश के होने से मौसम खुशगवार हो रखा था।
हवाओं में जमीन के भींगने की सौंधी सी खुशबू घुल गई थी। केदार को कॉफ़ी की उस एक कप
ने एक अजीब सी ठंडक दे दी थी। आँखें सामने वाली रंगीन दीवार को एकटक देखते हुए,
ठहर सी गई थी। मानो जैसे उसके लिए वो दिवार कुछ लम्हों के लिए एक आईना बन गया हो,
और उस आईने में, उसकी सूरत दिख रही हो। जो उससे कुछ कह रही हो, “कि तुम बिलकुल इस दीवार के जैसे ही हो
गये हो केदार। जिसमें रंगीनियाँ तो है, पर खालीपन उससे कहीं ज्यादा मोजूद है”।
एक भी तस्वीर नहीं टंगी थी उस दीवार पर, उसके
अकेली पड़ी जिंदगी की ही तरह। केदार के पास भी तो रिश्तों का कोई फ्रेम नहीं था। जिसके
सहारे वो अपनी जिंदगी की खाली पड़ी इस दिवार को सज़ा लेता। शायद इसलिए वो अपने
तन्हाइयों और खालीपन से भागता रहता है, और भागते भागते इस शहर के लोगों के तरह ही
हो गया है।
खुद के अकेलेपन को बाँटने के लिए उसने टेबल से
कुछ लिफाफे उठाये तो उन लिफाफों में वही कुछ क्रेडिट कार्ड्स के बिल तो कुछ ऑफिस
के अननेसेसरी डाक्यूमेंट्स मिले। पर आज का वो लिफाफा अब तक टेबल पर यूँ ही अलग-थलग
पड़ा था।
हाँथ के सारे लिफाफे पढ़ने के बाद। जब उसकी नजर उस
अलग-थलग पड़ी लिफाफे पर गई, तो उसे टेबल से उठाया और खोल कर शुरुआत का एक शब्द “बेटा केदार” पढ़ते ही चौंक गया। ये वो शब्द थे, जो उसे
कहने वाला अब कोई नहीं था इस दुनिया में, और शायद यही बुनयादी वजह थी उसके चौंकने
की।
ख़त के उस एक शब्द ने उसे यादों की बारिश में
खड़ा कर दिया था। अपने सीने पर ख़त को रख, वो दिल्ली के भीड़ भार से अपने छोटे कस्बाई
शहर बेगुसराय पहुँच गया। अपने शहर की उन्हीं यादों की बारिश में भींगने के लिए,
जिससे आज तक वो बचता आया था। घर पर माँ उसके दिल्ली जाने के लिए, कई तरह के पकवान
बना रही है, और बाबूजी बैंक गये हुए है। अपने प्राविडेंट फण्ड की पूरी रकम निकाल
कर लाने के लिए ताकि उसके बेटे का ऍम.बी.ऐ में एडमिशन हो सके।
“माँ मुझे शहर नहीं जाना है, मैं
आपलोगों से दूर नहीं रह पाऊँगा।”
“नहीं बेटे ऐसा नहीं
कहते। तुम्हारे बाबूजी और
मैंने तो तुम्हारे बचपन के दिनों से, ये सपने पाल रखे है, कि तू बड़ा होकर एक सफल
इंसान बने। उन्होंने तो अपनी
हर जरूरतों को दर किनार करके, तुम्हारे इस दिन के लिए ही तो, एक-एक पाई जोड़कर पैसे
जमा किये है।“
“पर माँ, वहाँ आपके हाँथों
की बनी ये पकवान कहाँ खाने को मिलेगी”। रसोई में पकवान बना
रही माँ को केदार ने पीछे से पकड़ कर कहा, तो माँ ने जवाब दी, “मक्खन मत लगा, चल
हट, जा अपना पैकिंग कर और मुझे पकवान बनाने दे। कुछ दिन ही सही पर
वहाँ मेरे हाँथों के स्वाद तो तुझे चखने को मिलते रहेंगे”।
“माँ मेरी हरी वाली
टी-शर्ट नहीं मिल रही है”। पकवान बनाती हुई माँ
रसोई से बोली, “वही होगी ठीक से देख”।
केदार अपने कमरे में पैकिंग कर रहा था। जब उसके बाबूजी
कमरे में दाखिल हुए। “केदार, ये ले चेक दिल्ली पहुँचने के
बाद कॉलेज में जमा कर देना। और हाँ, मैंने तुम्हारे अकाउंट में पैसे भी डाल दिए है।
थोड़े कैश भी निकाल लाया हूँ रास्ते खर्च के लिए, संभाल कर इसे भी रख ले”।
बाबूजी जैसे ही कमरे से जाने को हुए, तो केदार
ने कहा “बाबूजी आपने अपने प्रोविडेंट फण्ड के सारे पैसे
निकाल कर मेरे पढ़ाई के उपर खर्च कर दिए। अपने और माँ के लिए कुछ नहीं रखा”।
“बेटा, माँ बाप की सबसे बड़ी पूँजी उसकी
औलाद होती है। मैं और तुम्हारी माँ अपने उसी पूँजी के लिए तो यह सब कर रहे है ताकि
तू जिंदगी की हर सपने को पा सके। जरा सोच जब तू शहर जाकर बड़ा ओफ्सर बन जायेगा और
उसी शहर में हमें अपने दोस्तों से मिलवायेगा। उस घड़ी हमें कितना फर्क महसूस होगा”।
ये सुन कर केदार का जहाँ गर्व से सीना फुला
वहीँ आँखें भी भर आई थी। “हाँ बाबूजी, मैं आपके एक-एक सपने को
शहर जा कर पूरा करूँगा, आपको और माँ को वो सारी खुशियाँ दूँगा। जिन्हें आपदोनों ने
मेरे अच्छे भविष्य के लिए दफन कर दिए हैं।“
“बस बेटा, तेरा इतना सोचना और कहना
हमारे लिए काफी है। आज मेरे अच्छे संस्कारों के लगाए हुए पेड़ में नये टहनियां निकल
आईं है। मुझे कुछ और नहीं चाहिए, बस शहर जा कर अपने माँ को फोन करते रहना, वो तेरे
बिना नहीं रह पायेगी।“
रिक्शे पर घर से स्टेशन आते वक़्त केदार की
आँखें नम थी। उसे बचपन से लेकर
अबतक की वो सारी बातें याद आ रही थी। जो यहाँ की गलियों से लेकर कर जा रहा था। जागेश्वर की अठ्ठनी वाली बर्फ,
दोस्तों की मटरगस्ती, बाबूजी की डांट और माँ का प्यार।
स्टेशन पहुँचा तो दिल्ली जाने वाली ट्रेन
प्लेटफार्म पर पहले से खड़ी थी। बाबूजी भी स्टेशन तक छोड़ने आये थे। ट्रेन जब खुलने
को हुई तो बाबूजी बोले “हमारी चिंता एक जरा भी मत करना, और वहाँ
तुम अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर देना”। ट्रेन धीरे-धीरे खिसकी तो साथ-साथ उसके
बाबूजी भी कुछ कदम दौड़े। देखते-देखते ही ट्रेन प्लेटफार्म से दूर निकल गई और बाबूजी
ट्रेन के साथ केदार को दूर जाते देख रहे।
मन के अंदर बंद उस कोठरी का दरवाज़ा खुल सा गया
था। जिसमें न जाने कितने सालों से केदार ने झाँका तक नहीं था। कुर्सी पर बैठे उसे
आज वो सब दिख रहा था। जिसे दिल्ली आने के बाद अब तक नहीं देख पाया था। उसकी साँसें
भारी होने लगी थी। आँखों की पुतलियाँ शर्म से खुद को छुपाने के लिए पलकों की ओट
में जा छुपी थी। मगर बंद पलकों के निचे वो खुद को कब तक छुपा पाता। बिजली की एक
तेज़ आवाज़ उसे खींच कर वापस हॉल में ले आई। खिड़की के बाहर देखा तो अँधेरा घिर गया
था। वो कुर्सी से उठा और हॉल की कुछ लाइटें ऑन कर दी। उसने उस वक़्त हॉल में तो
रौशनी कर दिया था पर अपने दिल के अंदर उस अवसादी अँधेरे का क्या करता। जिसके एहसास
भर ने उसकी आँखें शर्म से झुका दी थी। लाइटें ऑन करने के बाद वापस उसी कुर्सी पर आ
कर बैठ गया। वो तो उस ख़त को अभी आगे और पढ़ना चाहता था। ख़त हाँथों में थामे वो फिर
निकल गया कस्बाई केदार की तलाश में...
“बेटा केदार, कितने वर्षों से तुम्हारे खैर-खैरियत
की एक भी खबर नहीं आई है। तुम वहाँ ठीक तो हो न? तुम्हारी माँ हमेशा चिंता करती
रहती है। वो बेचारी तो तुम्हारे गम में बीमार सी हो गई है। हर वक़्त वो तुम्हारे बारे
में मुझसे पूछती रहती है “कि कब आएगा मेरा चंदू”। मैं तो उसे झूठ बोल-बोल कर थक गया
हूँ। बेशक तुम हमें शहर मत ले जाओ पर अपनी माँ से फोन करके एक बार बात तो कर लो।
वरना वो तुम्हारी फ़िक्र में सच में एक दिन मर जाएगी। मैंने पिछले ख़त में भी लिखा
था, कि तुम्हारे पढाई के लिए जो मैंने बैंक से लोन लिया था। उस लोन के अब रोज रोज
बैंक से तगादे आते है। मेरा तो शर्म से अब घर से भी बाहर निकलना बंद हो चूका है।
तुम्हारी माँ ने किसी से सुना है, उनका पोता अब स्कूल जाने लगा है। तुझे देखने के
साथ-साथ हम दोनों को उसे भी देखने की बहुत ख्वाहिश हो रही है। बहु को कहना, हम
दोनों नौकर की तरह रह लेंगे तुम्हारे घर में पर हम बुढा-बूढी को अपने बेटे से अब और
जुदा न करे। सुनो अगर बहु न माने तो उस पर दबाब भी मत डालना। तुम थोड़ा वक़्त निकाल
कर बस एक बार के लिए घर आ जाओ। जिससे इन अधेड़ बूढी
आँखों को तुझे देख कर कुछ
लम्हों के लिए सुकून मिल जाये। अगर तुम पिछले खतों के तरह, इस ख़त का भी जवाब नहीं
दोगे तो हमें मज़बूरी में ये घर बेचकर बैंक वालों को पैसे देने होंगे। और फिर मैं
तुम्हारी माँ से और झूठ नहीं बोल पाउँगा। मैं जीते जी उसे सड़क पर या वृद्धाआश्रम में
रात गुजारते नहीं देख सकता। और क्या कहूँ तुम्हारा बूढा बाप गौरी शंकर।“
ख़त को पढ़कर केदार किसी बच्चे की तरह जार-जार रो
पड़ा। बेशक ये ख़त उसके नहीं थे। मगर ख़त के एक-एक ज़ज्बात हु-ब-हु उसके माँ-बाबूजी की
कहानी के जैसी थी। दिल्ली आने के बाद उसने भी तो अपने माँ बाप के साथ कुछ ऐसा ही
किया था। जब वो दिल्ली आया था तो शुरु में रोज अपने माँ-बाबूजी को फ़ोन किया करता
था पर जैसे जैसे उसे नये दोस्त और दिल्ली की रंगीनियाँ भाने लगी तो वो धीरे-धीरे
फ़ोन करना भी बंद कर दिया। फिर तो कभी-कभी उसकी माँ और बाबूजी ही फ़ोन कर लिया करते
थे। ये सोच कर कि रोज-रोज फ़ोन पर बातें करने से कहीं बेटे की पढ़ाई न बाधित हो।
चार साल उसके माँ-बाबूजी उसके लिए तड़पते रहे,
और उन्हीं चार सालों में केदार उनसे दिन-ब-दिन दूर जाता रहा। आखिर कार दिल्ली की
रंगीनियाँ और दोस्तों का हाँथ थामे उसने अपनी ऍम.बी.ऐ पूरी कर ली। ऍम.बी.ऐ पूरी
होते ही उसे एक बड़ी कंपनी में जॉब भी मिल गई थी। जॉब लगने के कुछ महीने दिन बाद
उसके बाबूजी ने उसे फ़ोन किया था, “बेटा, सुना है
तुम्हें जॉब लगी है। सबसे पहले तो बधाई हो मेरे लाल।“ ये कहते ही उसके बाबूजी की आवज़ अचानक
भर्रा गई थी और उसी भर्राई हुई आवाज़ में उन्होंने आगे कहा तुमसे एक बात बहुत दिनों
से कहना चाहता हूँ। “हम बुढा-बूढी को अब
अपने आँख के तारे से दूर रहा नहीं जाता सो बेटे तुम अब यहाँ आकर हमें ले जाओ”। बाबूजी के इतना सा कहने
पर केदार गुस्से से चिल्ला कर बोला “ये दिल्ली है, कोई
बेगुसराय नहीं। और मुझसे अभी इतना
कुछ नहीं हो पायेगा। वैसे भी मुझे वक़्त नहीं मिलता इस नई जॉब से। फिर यदि आपलोग यहाँ
आ भी जायेंगे तो आपके आगे पीछे कौन करेगा? बेहतर होगा आपलोग वही रहे, अगर पैसों-वैसे
की जरुरत है तो बोलिए, भिजवा देता हूँ।“ इतना कह कर फ़ोन काट दिया था केदार ने।
उसके बाबूजी के लगाये पेड़ के टहनियों पर फल तो
लग आये थे मगर ये वो फल नहीं थे। जिसके बारे में उसके बाबूजी ने ख्वाब संजोये थे।
ये फल तो बबूल के काँटों जैसे थे, जिनसे उनका सीना छलनी हो गया था। अपने बेटे की
इस व्यवहार को वो बर्दाश्त नहीं कर पाए। घुट-घुट कर इन्हीं बातों में उन्होंने
अपने प्राण त्याग दिए। बाबूजी की देहांत की खबर जब केदार को मिली तो वो बेगुसराय
आकर बेटे होने की थोड़ी बहुत जिम्मेदारी निभा कर माँ को अपने साथ दिल्ली ले आया।
दिल्ली आकर उसकी माँ पति की याद में बीमार रहने लगी तो केदार ने माँ के तामीरदारी
से बचने ले लिए, उसे वृद्धाश्रम में डाल दिया। एक माँ के लिए इससे बड़ी शर्म की बात
और क्या हो सकती थी। जिस बेटे को उसने नौ महीने कोख में रखा और अपने खून से सींचा,
आज वही बेटा उसके साथ ऐसा बर्ताव किया था। जिस वक़्त माँ को उसकी जरुरत थी। उस वक़्त
वो उन्हें अपने से दूर भेज दिया। फिर तो कुछ महीने ही वो बेचारी आश्रम में गुजारी,
एक सुबह वो भी बेहरहम शहर को छोड़ कर अपने पति के पास चली गई।
एक-एक यादें केदार के सामने फिल्म की तरह चल
रही थी। उसकी आँखें डबडब कर बही जा रही थी। उससे खुद से नफरत सी होने लगी, ये
सोचकर कि कैसे वो इतना बदल गया? कैसे देवता सामान अपने माता-पिता के साथ इतना बुरा
व्यवहार वो कर पाया था? उसे तो इस गुनाह के लिए उपर वाला भी माफ़ नहीं करेगा।
मन घृणा के भाव से भरे तो उसे फिर उस ख़त का
ख्याल आया। जो उसका तो नहीं था मगर उसका अपना सा हो गया था। उसने ख़त को पलटा और
उसके पते वाली जगह को देखा तो उसे पोस्टल डिपार्टमेंट की वो गलती दिखी। जिस गलती के
कारण वो ख़त उसके पास आ गया था। हाँ यह एक इत्तेफ़ाक ही था, कि फ्लैट नंबर और नाम एक
जैसे थे, पर पॉकेट नंबर तो अलग थे। पते वाली जगह पर उस ख़त के असली मालिक का मोबाइल
नंबर भी लिखा था, जिसका ये ख़त था। उसने मोबाइल उठाया और नंबर मिला दिया, “हेल्लो मिस्टर केदारचंद शर्मा”
“यस”
“आपका ख़त भूल से मेरे पास आ गया है, बाय
द वे आई ऍम केदार साह, पॉकेट-1 से बोल रहा हूँ”।
सामने से जवाब आया “ओह ..भेजने वाले की जगह किसका नाम लिखा है
मिस्टर साह, जरा देख कर बताये तो ”।
केदार ने ख़त को पलटा और बोला “गौरी शंकर रामपुर लखनऊ”।
नाम सुनते ही उधर से जवाब आया “स स सॉरी मैं इस नाम के किसी शख्स को नहीं
जानता, ये मेरे लिए नहीं है”।
मगर नाम को सुनते ही उसकी घबराहट साफ़ बयाँ कर
चुकी थी कि ये ख़त उसी का है और गौरी शंकर उसके पिता का नाम है। उसने एक गहरी साँस
भरी और अफ़सोस भरे शब्दों में कहा “फिर एक पिता ने बबूल का पेड़ लगाया”।
बरसात की उस रात केदार अपने अतीत में खोया,
अपने पापों को और अपने माँ-बाबूजी पर किये ज्यादती को गिनता रहा। कब सुबह हुई उसे
ये तक पता भी नहीं चला। अगले सुबह उस ख़त के कारण उसका मन बहुत ही दुखी था।
आज भी बारिश ने दिल्ली को अपने गिरफ्त में ले
रखी थी। ऑफिस आने के लिए उसे कॉल भी आ चुकी थी। जहाँ पहुँच कर उसे कल की रद्द हुई
मिट्टिंग को अटेंड करनी थी। और इस होने वाली मिट्टिंग का मुद्दा था कि कैसे कंपनी
अपने एम्प्लोयीयों के साथ बेहतर फैम्लिअर रिलेशनशिप बनाये। घंटे भर चली इस मिटिंग में
वैसे तो बहुत सारे उपाय निकले परन्तु कंपनी के एम्.डी ने अगले कुछ दिनों में आने
वाले पेरेंट्स डे के मौके को कैच करते हुए कहा “कंपनी पेरेंट्स डे के दिन एक पार्टी रखेगी।
जिसमें तमाम एम्प्लोयी चाहे छोटे हो या बड़े सब अपने अपने पेरेंट्स के साथ इस
पार्टी में शरीक होंगे। और पार्टी में सभी एक दूसरे से मिलकर घुलने मिलने की कोशिश
करेंगे”।
मिटिंग ख़त्म होने के बाद, केदार के लिए सबसे
बड़ा सवाल था कि वो अपने माँ-बाबूजी को कहाँ से लाये। अब जब उसे पेरेंट्स की
अहिमियत का पता चला था तो वे उससे काफी दूर जा चुके थे। उस शाम बुझे मन से वो ऑफिस
से वापस घर आया। घर आकर उसने एक बार फिर उस ख़त को उठाया और भेजने वाले पते को देखने
लगा। देखते ही देखते उसे अचानक एक बेहद खुबसूरत सा उपाय सुझा। केदार को यूँ लगा जैसे
इस इत्तेफ़ाक ने एक प्रायश्चित करने का मौका दिया है।
उसी शाम केदार ने दिल्ली से लखनऊ की फ्लाइट
पकड़ी और रामपुर उस ख़त के अड्रेस पर जा पहुँचा। और वहाँ पहुँच कर उसने बूढ़े गौरी
शंकर और उसके पत्नी से झूठ से कहा “कि आप के बेटे ने मुझे आपदोनो को
दिल्ली लाने के लिए भेजा है”। वे बुजुर्ग माता-पिता जो अपने बेटे
और पोते से मिलने के लिए मरे जा रहे थे। ऐसे वक़्त में केदार उसके लिए भगवान जैसा
बन गया था। उन दोनों ने जाने के लिए तुरंत हामी भर दी। रामपुर से दिल्ली आने की
सफ़र में न जाने कितनी बार गौरी शंकर और उसके पत्नी ने केदार के माथे पर हाँथ फेरते
हुए कहा, “भगवान तुम जैसा औलाद हर माता-पिता को दे”। केदार ये सुन रास्ता भर बस
मुस्कुराता रहा।
दिल्ली लाकर पुरे पांच दिन केदार ने उन बूढ़े माँ-बाप
को अपने साथ रखा था। इन पांच दिनों में उसने उनको वो हर खुशियाँ दी जो वो दे सकता
था, और जो शायद अपने माँ-बाबूजी को वो नहीं दे पाया था। केदार ने तो उन्हें पेरेंट्स
डे के पार्टी में भी उन्हें ले गया। उसने पार्टी में मौजूद अपने सारे दोस्तों से
रिक्वेस्ट करते हुए कहा था “हमारे माता-पिता एक पेड़ है और हम संतान
उस पेड़ की शाखायें। बिना पेड़ की हमारा कोई अस्तित्व नहीं है और बिना शाखों के पेड़ का।“ वो यहीं नहीं रुका, आगे बोलते हुए कहा
“मैंने तो अपने माँ-बाबूजी के साथ बहुत बड़ी ज्यादती
की है, आज मेरे उन्हीं ज्यादतियों के वजह से वो मेरे पास नहीं है। मैंने तो उन्हें
खो दिया है परन्तु मैं आप सबों से इतना कहूँगा यदि हम अपने माता-पिता को ख़ुशी नहीं
दे सकते है तो उन्हें दुःख देने का भी हमें कोई हक नहीं है।“
केदार को उस ख़त ने बिलकुल बदल दिया था। वो वही
पेड़ की टहनी बन चुका था। जिसे उसके बाबूजी एक मोटी फलदार शाखा बनते देखना चाहते थे।
केदार ने गौरी शंकर को उसके बेटे से भी मिलवाया। जिसके लिए उसे थोड़ी नाटक करनी पड़ी।
इस नाटक के तहत उसने केदारचंद शर्मा के बेटे टिंकू को स्कूल की छुट्टी होने के बाद,
बिना किसी को बोले अपने घर ले आया।
ऐसे में टिंकू स्कूल की छुट्टी होने के बाद जब वापस
घर नहीं पहुँचा तो परेशान होकर टिंकू के पापा टिंकू को ढूंढने को इधर उधर निकल गये।
बहुत ढूंढने पर भी जब उन्हें टिंकू नहीं मिला तो थक हार के घर वापस आ गये। फिर तीन
घंटे के बाद केदार टिंकू के घर उसके दादा-दादी और टिंकू के साथ पहुँचा। टिंकू के
माता-पिता यानि मिस्टर केदार शर्मा और मिसेज शर्मा ने जब अपने बेटे टिंकू को देखा
तो ख़ुशी से पागल से हो गये। यही वो वक़्त था जब केदार ने उन्हें एहसास दिलवाया, कि जब
आप अपने छोटे से बेटे से जिसकी उम्र मात्र पांच साल है। उससे तीन घंटे जुदा नहीं
रह पाए। उसे ढूंढने के लिए न जाने कहाँ कहाँ निकल गये। फिर जरा सोचिये अपने
माता-पिता के बारे में, जिन्होंने पूरे तीस साल जिस बेटे को पाला वो कैसे अपने
बेटे से जुदा रह रहे होंगे?
ये सुन टिंकू के पापा की आँखें शर्म से झुक गई
थी। टिंकू के पापा ने जब अपने माँ-बाबूजी से माफ़ी मांगी तो उनदोनो ने उसे गले से
लगाते हुए एक ही पल में सब कुछ भुला कर माफ़ कर दिया।
ऐसे होते है हमारे पेड़, जो अपनी टहनियों के हर बेरुखी
को हँस कर माफ़ कर देते है। बूढ़े माँ-बाप को उसके अपने बेटे से मिला कर, केदार ने सच
में प्रायश्चित कर लिया था। इस मिलन के बाद केदार भी ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ से वापस घर
चला आया। अगर केदार के माँ-बाबूजी भी उसे कहीं से देख रहे होंगे तो उन्होंने ज़रूर
ही केदार को माफ़ कर दिया होगा।
अजय ठाकुर
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