तेरे यादों का
बस्ता खंगालने पे
अंतर्मन में होती
असीम सी
सुखद अनुभूति
उन अनुभूतियों को
महसूसने से पता
चलता है
बस्ते के हर
हिस्से के
जर्रे जर्रे में
बसता है तेरा नूर,
जहाँ किताबों के
हर पन्नों पर
मिल जाते हो
मौजूद तुम
जिसे बटोरकर जब
जी चाहा
समेट लिया खुद में
ना किसी ने रोका
न टोका,
बरसों तक
तेरे साँसों के
साथ बंधे रहेंगे
करके वादा
मुस्कुरा जो दिया था
कभी तुम और तेरी
यादों ने
आज उन्हीं से
गुजारिश है
लौटा दे
बचपन वो सारी
पगडंडियाँ
जहाँ तेरा हाँथ
थामे खेत खलिहानों में
मैं दौड़ लगाया
करती थी
कटी पतंग को
लूटने
हम तुम दूर दूर
तक दौड़ा करते थे
आज उम्र के इस
पड़ाव पे
मेरे पतंग का डोर
कुछ उसी तरह कट
गया है
मैं निढ़ाल सी
उसी तरह गिड़ी जा
रही हूँ
इस आस पे की
बचपन का वही
महफ़ूज़ तेरे हाँथ
मुझे थाम लेगा
मैं फिर बचपन से
गुजर के जवान होंगी
मगर इस बार
मैं सिर्फ तेरी
और तेरी होंगी
मुझे सिर्फ तेरी
यादों के सहारे नहीं
इस बार तेरे
सहारे भी जो जीना है।
जूली अग्रवाल
कोलकता
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