इंद्रियों का फैलता जाल
भीतर तक चीरता

माँस के लटके चिथड़े
चोटिल हूँ बताता है

मटर की फली की भाँति
कोई बात कैद है

उस छिलके में
जिसे खोल दूँ तो

ये इंद्रियाँ घेर लेंगी
और भेदती रहेंगी उसे

परत दर परत
लहुलुहाल होने तक

बिसरे खून की छाप के साथ
क्या मोक्ष पा जायेगी

या परत दर परत उतारेगी
अपना वजूद / अस्तित्व

या जल जायेगी
चूल्हें की राख की तरह

वो एक बात
जो अब सुलगने लगी है.


दीप्ति शर्मा
आगरा

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