मैं तो बरसों की भांति
आज भी यहीं हूँ
तुम्हारे साथ
पर तुम्हारी सोच नहीं बदली
आज भी यहीं हूँ
तुम्हारे साथ
पर तुम्हारी सोच नहीं बदली
पत्थर तोड़ते मेरे हाथ
पसीने से तर हुई देह
और तुम्हारी काम दृष्टि
नहीं बदली अब तक
ये हाथों की रेखाएँ
माथे पर पडी सलवटें
बच्चों का पेट नहीं भर सकती
मैं जानती हूँ और तुम भी
कंकाल बन बिस्तर पर पड़ जाना मेरा
यही चाहते हो तुम
तुम कैसे नहीं सुन पाते सिसकियाँ
भूखे पेट सोते बच्चों की
मेरे भीतर मरती स्त्री की
मैं दलित हूँ
हाँ मैं दलित स्त्री हूँ
पर लाचार नहीं
भर सकती हूँ पेट
तुम्हारे बिना
अपना और बच्चों का
अब मेरे घर चूल्हा भी जलेगा
और रोटी भी पकेगी
मेरे बच्चें भूखें नहीं सोयेंगे ।
तुम्हारे कंगूरे, तुम्हारी वासना
तुम्हारी रोटियों, तुम्हारी निगाहों
सब को छोड़ आई हूँ मैं ।
आगरा
सुंदर अभिव्यक्ति !
अत्यंत मार्मिक
dalit sachamuch stri hi hai ........bahut hi marmik rachana purush pradhan soch pr karara prhar .......patrika me prkashit hone pr hardik badhai
भाव भरी अभिब्यक्ति हार्दिक बधाई ...
Sunder Rachna hai
ye sirf dalit woman ki kahaani nahi hai balki bhartiya Samaj ki har Aurat ki kahani hai..., bahut bahut badhai ho deepti ji.....
Rajesh Panchbudhe Nagpur
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अत्यंत मार्मिक
ye sirf dalit hi nahi to har bhartiya aurat ki kahani hai bahut badhai Deepti Ji....