परेशानियाँ हमे अब
परेशां नहीं करती ।
कचोटती भी नहीं
कभी न रुलाती है ।
इसको देने में जब
तुम होते हो खुश,
गर मिलता हो सकून
ह्रदय-विराट सिन्धु को,
तो महत्त की खुशी में
निहित है हमारी ख़ुशी ।
मैं मचल सा जाता हूँ
मिट्टी के घरौंदे में
मस्त-व्यस्त अबोध
उस बच्चे की तरह ।
तुम होते हो आमदा
तोड़ने उस घरौंदे को ।
कितने रहस्यमय कैसे
दयालु हो महाकौल ।
इसके टूटने में ही
छिपा होता हमारा
मुक्त मुद्दित-विचरण
परिधि के उस पार ।।



डॉ विश्वनाथ विवेका
कुलसचिव,
बी.एन.मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा.

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