टिकट की विकट स्थिति है
उस दुर्गम पहाड़ी के
रास्ते की तरह
जहां से वाहन तो क्या
कदम भी लडखडाते
बढ़ने से डरते हैं
वैसे ही व्याकुल भोर से
रात तक
लम्बी लाइन में खड़े होने
के बावजूद भी
हाथ कुछ नहीं लगता
बल्कि
मुफ्त में दर्द,खीझ और कडुवाहट घुल जाते
हैं
जिह्वा पर
जैसे कोई कसैला पान
दातों तले आ गया हो
उसकी पीक असहनीय हो रही
हो
झट से उगल दिया हो
किसी पीकदान की
प्रतीक्षा किये बिन
पास से सटे दीवार पर
वह लालिमा अनायास ही आकार
ले ले
सूरज का या किसी खास तरह
के
चलचित्र या फिर छायाचित्र
का
यह सब निर्भर करता है
आँखों में तैरते गोल-गोल
पुतलियों के नजर पर
पृथ्वी की तरह घूमते हुए
चारो योजन के चक्कर काट
आये
फिर भी हाथ क्या आये
कुछ कागज के टुकड़े
पसीने से भींगते हुए
लुगदी में
परिवर्तित होते
चिंता की तरह
डॉ सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर
हंसराज कॉलेज, नई
दिल्ली
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