धरती के बाद सृष्टि का
दूसरा नाम है औरत.
करूणा, ममता और सहनशीलता की 
प्रतिमूर्ति है-औरत.
सामाजिक रूढियों और बेड़ियों में
जकड़ी बंदिनी है-औरत.
शोषण, लांछन, उपेक्षा और अपमान
का दंश झेलने को अभिशप्त है-औरत.
बर्बर कबीलाई दौर से
सभ्यता के आधुनिक युग तक
अनगिनत अत्याचार भोगने को विवश है-औरत.
कहने को देवी
पर दासी है औरत.

हमने उसके पांवों में बेड़ियाँ डाली,
उसने उसकी पैजनियाँ बना ली.
हमने उसके हाथों में हथकड़ियाँ डाली,
उसने उसकी चूड़ियाँ बना ली.
हमने उसके नाक बेधे,
उसने उसमें नथुनी डाल ली.
हमने उसके कान छेदे,
उसने उसमें कर्ण-फूल डाल ली.
हमने उसके गले में फसरी डाली,
उसने उसकी हंसुली बना ली.
हमने उसके सर फोड़े,
उसने गर्म टपकते लहू का
सिन्दूर बना लिया.
हमने उसे परदा, बुर्का, चूल्हा,
आँगन की चारदीवारी में कैद किया,
उसने हमें आजादी का
विस्तृत आकाश दिया.
उसने हमें जन्म दिया,
हमने उसे बाजार दिया.
उसने हमें स्नेह दिया,
हमने उसे यातना दी.
हमने उसे जो यातना दी,
उसने उसे अपना इम्तिहान समझा.
हमने उसे बनाया अपनी
हवस और शोषण का ठांव,
उसने दी हमें करूणा
और ममता की छाँव.
कृतघ्नता की पराकाष्ठा बना पुरुष,
ममता की मूरत बनी औरत.
हमने उसे मिटाने का किया हर प्रयास,
उसने हमें बचाने की, की हर कोशिश.
उसने हमें अपना अंश माना,
हमने उसे अपनी संपत्ति.
क्योंकि,
आखिर वह जननी है,
और हम हैं उसकी संतति.


-आनंद मोहन (पूर्व सांसद), मंडल कारा, सहरसा.
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