दुनियादारी मुझे नचाये, अक़्सर होता है।
अपनी धुन सुन न पाऊं, अक़्सर होता है।

कब की छोड़ी राग-रोशनी, फिर भी
तेरे अक्स से ईद मनाऊं, अक़्सर होता है।

नुमायाँ न रही जब सदाक़त अब तो,
बीच कचहरी मैं टांगा जाऊँ, अक़्सर होता है।

उस तराने को जो बस्ती में दुत्कारा था,
परदेस में उसे मैं गाऊँ, अक़्सर होता है।

गिरवी रख आया मैं अल्फ़ाज़ वो अपने,
खुद को अब बेईमान पाऊँ, अक़्सर होता है।

मजहब देखा, सरहद देखी, फिर मुसाफ़िर
हर चौदहवीं ख़ुदा मैं बदलूँ, अक़्सर होता है।

           
सुब्रत गौतम "मुसाफ़िर"
मधेपुरा
1 Response
  1. Unknown Says:

    shaandar "musafir sahab " .. dil ki baat dil tk kr di aapne .. (y)


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