ये क़ुदरत का ख़ंज़र,
तबाही का मंज़र ।
बहुत बेचैन करता है,
ख़ुदारा फ़िर भी ये इन्सां
क्यों नहीं डरता है।
पलट देता है इक़ लम्हे में,
इमारतें, तख़्तोंताज़, शोहरतें !
ख़ाक़ में मिलाकर,
कर देता रौनकें, मातम में तब्दील,
गुलिस्तां कर देता बंज़र ।
या ख़ुदा शब्र बख़्श रूह को
नेक़नियती से आबाद कर जहां सारा ।
ये तबाही कहती है संभल जा
वक़्त है अभी ।
दिलों पे राज़ कर
न कर ख़ून इंसानियत का ।
एक तिनके सी हैसियत है तेरी,
रहता है क़िस ग़ुरूर में फ़िर भी ।
ख़ुदा के बंदे, बन्दों
की मानिंद रह,
दैरोहरम से चाहे दूर मग़र,
इंसानियत के पास रह।
ये गुज़ारिश है अब जो हुआ सो हुआ ,
इक़ दूसरे के वास्ते माँगे हम दुआ !
दिल बहुत ज़ख़्मी है,
आर-पार है ज़हन के
कुदरत का ख़ंज़र।
ज़ुबाँ ख़ामोश हो चली है देखकर
ये तबाही का मंज़र ।।
डॉ. भावना
तिवारी
9935318378
ज़ुबाँ ख़ामोश हो चली है देखकर
ये तबाही का मंज़र............
सच है .... www.shabdanagari.in से प्रियंका
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