देखे हैं हमने भी
ज़माने को यहीं
देखा हैं आँख मूंदते हुए
अपनों को यहीं
हाँ अब थक गया हूँ मैं
खोजता हूँ बिस्तर कि
अब बस बहुत हुआ
अब और नहीं.
बस सो जाऊं ऐसे कि..
दुनिया भी हो न खफा
अपने तो अपने सही
गैर भी कह सके न बेवफा
पर लगता हैं अब भी  
कुछ बाकी है करने को ...
बुझते तो दीये भी हैं
फिर जलने को.....
फिर तक़दीर में हो
लिखा गम ही सही...
आजमा लूं उनको भी
तो फिर हर्ज ही क्या ...
इस कश म कश मे डूबा
तो एक नशा होगा ....
उनके भी लिस्ट में
नया कोई फनाह होगा.....
नादान हैं वो सोचेंगे
उनकी आखों में
बस डूबा है कोई यूँ ही
उसे क्या पता ..
दिल में एक हसरत है उनके भी बसी..
हाँ एक बार तो गुमा हो मुझे फिर..
जब जब टूटा हूँ मैं
और भी निखरा हूँ मैं.....
बस यूँ ही.

संदीप शांडिल्य
मधेपुरा
4 Responses
  1. Bharti Das Says:

    सुन्दर रचना


  2. Bharti Das Says:

    सुन्दर रचना


  3. खुबसूरत अभिवयक्ति.....


  4. Aman Kumar Says:

    स्वागत है...ये बिखरना-निखरना चलता हीं रहेगा। यही जीवन है...बस चलते जाना है. . .


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