हे पार्थ !
हे पार्थ !
मैं सिंहासन पर बैठा
अपने धर्म और कर्म से
अंधा मनुष्य.
मैं धृतराष्ट्र
देखता रहा, सुनता रहा
और द्रौपदी के चीरहरण में
सभ्यता, संस्कृति
तार तार हुई
धर्म के सारे अध्याय बंद हुए.
तब मैं बोला धर्म के विरुद्ध
जब मैं अंधा था
पर आज
आँखें होते हुए भी नहीं देख पाता
आज सिंहासन पर बैठा
मैं मौन हूँ.
उस सिंहासन से बोलने के पश्चात.
हे पार्थ
सदियों से आज तक
मैं मौन हूँ.
दीप्ति शर्मा,
आगरा (उ०प्र०)
सुंदर !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अक्षय तृतीया और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !