मिस्टर घोष छुट्टी से लौटे थे। अनुवाद में एकाग्रचित थे कि अचानक सामने से चिरपरिचित आवाज आई- “सर मैंने इस्तीफा दे दिया है. मिस्टर घोष बिलकुल नहीं चौंके। क्योंकि इसकी उम्मीद उन्हें पहले से थी। पिछले करीब दस महीने से सपना ने जो अपमान सहे थे, जो जिल्लत की जिंदगी जी थी, जिस प्रकार से डिप्रेशन में जाने लगी थी, उससे छुटकारा पाने का एकमात्र उसके पास उपाय बचा था नौकरी से इस्तीफा !
एक बेटी को माँ-बाप ने बड़े अरमानों से बेटों की तरह पाला था। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के बावजूद उसे अच्छी शिक्षा दी। नौकरी मिलने पर माँ-बाप की खुशी का ठिकाना न था। सीना कई गुना चौड़ा हो गया था। अपने समाज में सम्मान बढ़ गया था। पर शायद इनकी खुशी को कुछ दुष्ट आत्माओं की नज़र लग गई थी। सपना बातूनी थी, निश्छल थी और दुनिया के छल-प्रपंच से अनजान थी। कार्यालय में पहले दिन से ही कुछेक अधिकारियों में उसे अयोग्य साबित करने की होड़ लग गई थी । उसे नौकरी से निकालने की साजिश रची जाने लगी थी। वह कार्यालयीन सामंतवाद की शिकार होने लगी। वह विश्वविद्यालय से सीधे कार्यालय की दुनिया में कदम रखी थी। उसके लिए यह एक नई दुनिया थी जहां सब कुछ उसे नए तरीके से सीखना था। वह मेहनती थी, लगनशील थी और काम सीखने में रुचि रखती थी। पर उसे बार-बार यह आभास कराया जाने लगा था कि वह हिन्दी अधिकारी के लायक नहीं है।
वह पहली बार अपने माँ-बाप से दूर किसी अनजान शहर में नौकरी करने आई थी जहां उसे अपना कहने के लिए कोई नहीं था। उसे प्यास थी तो इस बात की कि कोई उससे प्यार से मुस्कराते हुए दो टूक बातें कर ले। लेकिन ऐसा उसे उनसे नसीब नहीं हुआ जिनसे उसे सबसे अधिक जरुरत थी। उसे शुरू से ही लगा कि उसके चारों तरफ एक अमानवीय और बेहद असुरक्षित वातावरण की सृष्टि कर दी गई है। उसे आभास करा दिया गया था कि वह इस नौकरी के लिए फिट नहीं है और उसे निकाला जा सकता है। अतः काफी सोच-विचार के बाद उसने ऐसी नौकरी से तौबा करना ही बेहतर समझा। बीमार माँ-बाप के लिए बेटी की खुशी ज्यादा मत्वपूर्ण थी । बेटी डिप्रेशन में न चली जाए, इसलिए उन्होंने बेटी के फैसले का समर्थन किया।


सपना ने समझ लिया था कि जिस अनुभाग में 30-30 साल से काम कर रहे वरिष्‍ठ अधिकारियों, जिनमें से कुछ सेवानिवृत्ति के निकट हैं, को अयोग्‍य साबित करने के लिए अनुभाग प्रमुख एड़ी-चोटी का पसीना एक करते रहते हैं, वहॉं वह अपनी फरियाद किसके पास लेकर जाएगी. अत: हर तरफ से निराश होकर उसने यह बेहद कठिन और चैंकानेवाला फैसला किया था. कुछ दुष्‍ट आत्‍माओं को सपना और उसके साथ कैंपस भर्ती के माध्‍यम से भर्ती हुए उसके साथियों से यह भी परेशानी थी कि बहुत ही साधारण और खाते-पीते घरों के इन बच्‍चों को इतनी अच्‍छी नौकरी कैसे मिल गई है. अत: वे इनके पहनावे, चाल-ढाल, बातचीत, योग्‍यता आदि के बारे में बेवजह भी कमियाँ निकालती थीं. सपना और उसके साथियों ने अपने पिता और मॉं की उम्र के अधिकारियों से ऐसे व्‍यवहार के बारे कभी सोचा भी न होगा !
रोज-रोज के अपमान से तंग आकर उसने एक दिन मिस्टर घोष से कहा था – “सर, मुझसे मैम ने कहा है कि तुम्हें एमए में किसने गोल्ड मेडल दिया। मैं तुम्हारी कॉपी चेक करती तो तुम कभी पास नहीं कर पाती। मिस्टर घोष ने एक दिन देखा था कि उसकी मैम उसके साथी अधिकारियों के सामने उसके हाथ से अधूरा अनुवाद झटक कर गुस्से में कुछ बुदबुदाते हुए चली गई थीं। सपना अपमान से तिलमिला उठी थी। उसकी आंखे नम हो गई थीं। पर उसे अपमानित करनेवाली दुष्ट आत्माएँ अपने दुराचरण पर शर्मिंदा होने के बजाए गर्व महसूस करती थीं। उसकी बॉस उसके हिन्दी की खिल्लियां उड़ाती थीं, छोटे बच्चों की तरह उससे लेख लिखवाती थीं और उसे चेक करती थीं। यानि उसे महसूस कराने की कोशिश की जाती थी कि उसकी एमए कि डिग्री बकवास है। जब उसे मोटीवेशन की जरूरत थी तो उसे अपमान मिलता था।
इस अमानवीय माहौल में सपना और उसके साथियों के प्रति सहानुभूति रखनवाले कुछ पुराने अधिकारी भी थे, लेकिन उनकी सहानुभूति तनाव से क्षणिक मुक्ति ही दे सकती थी. उसे और उसके साथियों को एचआरडी से प्रति माह काम में सुधार करने और अधिक मेहनत करने के लिए चेतावनी ईमेल आया करते थे जिससे उनको पता चलता था कि उनकी रिपोर्ट हर महीने खराब की जाती है, जबकि अन्‍य विभागों में उन्‍हीं के साथ भर्ती अधिकारियों को अच्‍छी रिपोर्टें मिलती थीं. एक तरफ रोज-रोज की मानसिक प्रताड़ना और दूसरी तरफ प्रति माह कार्यनिष्‍पादन रिपोर्ट खराब होते देखकर सपना को लगा था कि यहॉं वह टूटकर विखर जाएगी और फिर स्‍वयं को समेटना मुश्किल हो जाएगा.
उसने मिस्टर घोष से कहा था – “सर, मैम ने मुझसे कहा है कि तुम योगा और प्राणायाम का क्लास जॉइन करो। तुम्हारा दिमाग मजबूत होगा और तुम घबराओगी नहीं। मैम मुझे पागल समझती हैं।अपने आपको सभ्यता, संस्कृति और मूल्य का संरक्षक समझने वाले कितने अमानवीय, हृदयहीन, भावशून्य और विचारों से हिंसक हो सकते हैं, इस बच्ची ने दस महीने में समझ लिया था । तथाकथित शिक्षित समाज अपनापन और प्यार के मामले में इतना कंगाल और नीरस क्यों है ? सपना के सपनों का मर्डर कर उसे क्या मिला ?
सपना के साथ के अन्य साथियों का दर्द भी कुछ मिलता-जुलता ही था। सपना उनसे अपना दर्द शेयर कर कुछ हल्का अनुभव कर लेती थी। कुछ दिन पहले ही शर्माजी उसके बॉस बने थे। तब से वह खुश रहने लगी थी। शर्मा जी जैसे बॉस शायद उसे शुरू में मिल जाते तो उसे नौकरी छोड़ने की नौबत नहीं आती।
उसने अपनी विदाई के समय सबके प्रति आभार व्यक्त किया। उन दुष्ट आत्माओं के प्रति भी जिनकी वजह से वह नौकरी छोडकर जा रही थी। उसके चेहरे पर शांति और खुशी साफ झलक रही थी। यह समय उसके लिए किसी कैद से आज़ाद होने जैसा था। सपना मेहनती है, ईमानदार है, इसलिए जीवन में जरूर कुछ अच्छा करेगी। समय के साथ-साथ वह भीतर से मजबूत भी होगी।
जैसा हम दूसरों से अपने प्रति व्यवहार की अपेक्षा करते हैं वैसा ही व्यवहार हम दूसरों के साथ क्यों नहीं करते ? हम मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों, आदि स्थानो में जाकर ईश्वर से आशीर्वाद मांगते हैं और उसी ईश्वर की रचना इंसान से नफरत भी करते हैं ! यह कैसी पूजा है ! मोटी-मोटी पोथियां लिखकर खुद को विद्वान साबित करने की कोशिश करते हैं और मानवता के नाम पर कंगाल बने रहते हैं। सब कुछ बनकर भी मानवीय गुणों से सम्पन्न एक अच्छा इंसान बनने से हमें क्यों परहेज है ?
जाते-जाते उसने रो-रो कर अनुभाग प्रमुख श्री जलोटा से कहा था कि वह नौकरी नहीं छोडना चाहती थी लेकिन वह दो महिला अधिकारियों की वज़ह से नौकरी छोड़ रही है जो शुरू से ही उसे उसका जीना हराम कर रही थीं। श्री जलोटा जानते थे कि वे दो महिला अधिकारी कौन हैं और वे चाहते तो सपना के साथ पिछले 10 महीने से हो रहे मानसिक अत्याचार और करीब रोज-रोज के अपमान को रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। एक जानवर भी दो-चार दिन मनुष्य के साथ रहने पर उसे अपना लेता है, उसके दुख से दुखी और सुख से सुखी होता है, उसके प्रति अंतर आत्मा से प्यार और अपनापन जताता है। पर एक मनुष्य, मनुष्य के साथ ही इतना, निर्मम, कठोर और असंवेदनशील क्यों होता जा रहा है ? सपना ने तो किसी का कुछ बिगड़ा भी नहीं था । कहीं स्‍वार्थ और अहंकार के तापमान से हमारे भीतर की नदी सूख तो नहीं रही है !
इस समाज में राम और रावण के बीच जंग प्राचीनकाल से चलता आ रहा है। आज हर क्षेत्र में रावण और उसकी राक्षसी सेना मजबूत नज़र आ रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि हमारे समाज में तथाकथित शिक्षित और सभ्य कहे जानेवाले अधिकांश लोग कायर, डरपोक और नपुंसक हो गए हैं। इस समाज में कुछ दुष्ट, अहंकारी और शहरी सामंती प्रवृति के लोगों के कारण न जाने कितने ही सपना के सपनों का कत्ल हो रहा है और हम मूक दर्शक बने रहते हैं। कल कोई सपना आपकी बेटी भी हो सकती है, इसलिए सावधान


कृष्ण ठाकुर
सी-84, मेकर कुन्दन गार्डेन,
जुहू तारा रोड, एसएनडीटी के पास,
मुंबई-4000049.
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