प्रतिशोध
की धुँआ उस गाँव में उठे
या
इस गाँव में
प्रतिशोध
आख़िरकार प्रतिशोध है
दंगा
उस गाँव में हो
या इस गाँव में
दंगा आख़िरकार दंगा है
लहू
उस गाँव में बहे
या इस गाँव में
लहू आख़िरकार लहू है
और सबका
रंग एक ही है,लाल
लाश
उस गाँव में गिरे
या इस गाँव में
लाश आख़िरकार इंसानी लाश है
इंसान
उस मज़हब का हो
या इस मज़हब का
मज़हब आख़िरकार इन्सानी हो
बेटी
उस गाँव की हो
या इस गाँव की
बेटी आख़िरकार बेटी है
क़त्ल
उस गाँव में हो
या इस गाँव में
क़त्ल आख़िरकार क़त्ल है
कोख
उस गाँव में उजड़े
या इस गाँव में
कोख आख़िरकार कोख है
बात
कितनी छोटी सी थी
और कितनी बड़ी हो गयी
उस गाँव के
लोग समझ सके
न इस गाँव के
सियासत
की शराफ़त में दोनों ठगे गये
कुछ
उस गाँव के कट गये
कुछ इस गाँव के
कट गये
दंगे की आग में इंसानियत और धर्म
दोनों ही दफ़्न हो गये
अल्लाह बचा सका
ईश्वर बचा सका
अब भी
वक़्त है
मरती हुई इंसानियत बचा लो यारों !
कुछ
उस गाँव से निकल पड़ो
कुछ इस गाँव से निकल पड़ो
मिटाकर नफ़रत को
अपने दिलों-दिमाग से
हो सके तो
साझी संस्कृति और
साझी विरासत को
बचा लो
यह पैग़ाम उस गाँव के लिए भी है
और इस गाँव के लिए भी ...
! copyright @ आत्मबोध


डॉ रमेश यादव
सहायक प्रोफ़ेसर
इग्नू, नई दिल्ली.

1 Response
  1. Unknown Says:

    This is not mere a poem but a great massage to whole humanity.I wish this massage may get conveyed to all the human being for the dignity of India and great Indian cultural Heritage.
    Thank you Very much.


एक टिप्पणी भेजें