खिचड़ी भले ही सुपाच्य खाद्य पदार्थों की सूची में अपनी ऊँची जगह पाई हो, लेकिन, फिलहाल वह अति गरिष्ठ हो गई है. बेचारी खिचड़ी ! जब से वह सरकारी ओहदा पाई है, गर्दिश की दौर से गुजर रही है. सूंडे, पिल्लू और कीड़ों के साथ-साथ अब कीटनाशक से गठजोड़ कर बैठी है, जिस प्रकार घाघ, घोटालेबाज, सफेदपोश नेताओं की बिरादरी में क्रिमिनल शामिल होकर राजनीति की शुचिता को पलीता दिखा रहे हैं.
      कभी गुरुकुल की शैक्षणिक व्यवस्था भिक्षाटन पर टिकी थी, पर आज यह सरकारी भिक्षा का मुंहताज है. सच, एम.डी.एम. योजना फकत माल दबाओ माल बनकर रह गई है. चावल के सरकारी बोरे सफर शुरू करते ही दुबलाने लगते हैं जो स्कूली पाकशाला तक पहुंचकर हांफने लगते हैं.
      खिचड़ी के आशिकों ने कभी फिकरा फेंका था-
खिचड़ी के चार यार, दही, पापड़, घी, अँचार.  
लेकिन आज-
खिचड़ी के चार यार, प्रधान, प्रखंड, कूली, ठेकेदार. नजर आते हैं.
      सतर्क, सचेत शहरी समझदार, संपन्न ग्रामीण और सरकारी सेवक सरकारी विद्यालय के भोजनालय की खिचड़ी का भोग लगवाकर अपने बच्चों की शिक्षा और संसार को क्योंकर घुन
लगवाएंगे. ऐसा सुअवसर तो उन बदनसीब भावी कर्णधारों के हिस्से आता है जो थाल बचाकर पुलाव के रूप में भुना भात का प्रसाद पाते हैं और गुरुजन अपना गाल बजाकर समय बिताते हैं. रोजमर्रा की जिंदगी का अध्याय बिना पढ़ाई-लिखाई का समाप्त होता है.
      छपरा-सिवान के गण्डमान पाठशाला के सरकारी निवाले ने हँसते-खेलते तेईस नौनिहालों की जिंदगी लील ली. उन मासूमों की धधकती चिताएं कैसी चिंता पैदा कर रही है. कभी भूत सरकार ने
जनसंख्यां नियंत्रण का नायाब तरीका ढूंढ ली थी- माँ-बाप का नसबंदीकरण. आज प्रेत सरकार उसके अधूरे सपने को साकार खिचड़ीकरण से कर रही है. 2004 में सुप्रीम कोर्ट से आदेशित इस योजना की दुहाई देकर सरकार अपनी पीठ खुद थपथपा रही है जबकि एन कानून को वह अपनी जेब में लेकर उंघती रहती है.
      कथित कल्याणकारी योजना आज अपने लक्ष्य से भटककर शिक्षकों के गले में हड्डी की भांति अटक गई है. पोशाक योजना और सायकिल योजना जैसी योजनाएं कब का शिक्षालय को राजनीति का अखाड़ा बना डाली है. आखिर सरकार ऐसा रोमांचक तमाशा और हंगामा खड़ा कर कबतक विकास का व्यापार करती रहेगी ?

 पी. बिहारी बेधड़क
कटाक्ष कुटीर, महाराजगंज,
मधेपुरा.     
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