एक दिन...!
मेरे एक संगदिल शागिर्द ने मुझसे कहा-
आइए दोनों मिलकर एक बात पे
सहानुभूतिपूर्वक करें विचार
मैंने कहा- बखूबी बताएं मेरे परवरदिगार..,
वे तन-मन से बोले-
शहर के एक मशहूर चौराहे पे
एक बोर्ड लगते हैं
और फिर उसपे चिपकाते हैं
एक बड़ा सा इश्तिहार
जिनमें निहित हों
राहुल के दिल का सार
और..! जिसपर-
बड़े मोहब्बत से लिखा हो-
राहुल गांधी की भी यही पुकार
तरुण भारत के सपने तो हों साकार

इससे क्या कुछ होगा, मैंने कहा-
कुछ सुझाएँ
कुछ-कुछ खुले दिल से करें इजहार
बड़े गंभीर वक्ता निकले
बोले- यही तो है,
अबतक के सियासत का सार.
बहुत खूब कहते ही मेरे कहने लगे
रब  ने भी बंदे को क्या दिया है
भरपूर शिष्टाचार
सहज-सरल, सौम्य व्यक्तित्व
और चेहरे पे गजब का निखार
जो तय करेगा- हिंदोस्ता की हसरतों को
बहुतायत में पायेंगे-
दबे-कुचले उनसे प्यार...

अजी !
यकीं मानिए मेरा
नहीं मचेगी इतनी लूटमार..
फ़रिश्ते ने निश्चय ही निभाया है
दर्द का रिश्ता.. और
सुनी है करीब जाकर करूण पुकार

इतने में मोबाइल बजी
और फिर..! करीने से गुफ्तगू में मशगूल
हो गए मेरे शहरयार...
फारिग होने पे मुझे भी बताएं
बातें दो चार..

बेदाग़ दामन हो जिनका
और न हो दिल में कोई गुबार
और न हों कभी के गुनाहगार
निश्चय ही उनमें हों भोलेपन की खुशबू
और हों..सौम्य सियासत के भरपूर आसार
साथ ही ..न हों क्रूर... न खूंखार..
देखना-देखना तुम भी बेशक देखना !
इसका वो पक्का बंदोबस्त करेंगे कि-
घाट एक ही हों,
चाहे पीने वाले शेर हों या सियार..

मेरे शागिर्द शहरयार थे बड़े अदबगार
लिहाजा
मैं भी पूरी रौ में पूछ गया
इतनी सारी बातें कैसे समाएगी एक इश्तिहार..?
बोले लेकिन मेरी बातों को कर के दरकिनार
लोकतंत्र के दिलों में उठेगा
भावनाओं का भव्य ज्वार
जिनमें तरुण भारत के सपने होंगे
साकार करने वाले मेरे अपने होंगे
जिनका पूरा वतन ही होगा अपना घर-परिवार

इतने में
गांधी का गाँव आ गया था
कुएं का ठंढा पानी और
पीपल का छांव आ गया था
सोचा क्या यहाँ भी है
इश्तिहार की दरकार
कि दिख गए चाचा चौधरी नंबरदार
गले लगाकर बोले- बेटा !
गांधी के गांवों में तो
अब भी अँधेरा कायम है
और आँखें नम की नम हैं..

क्या कोई फरिश्ता आएगा..?
जो हमें मुक्ति दिलाएगा..
और मेरा मसीहा कहलायेगा
और मेरे जख्मों को सहलायेगा
और उनके दिल में होगा
हिम्मत का भंडार
जिगर में अरमानों का अंबार
जां में हर किन्ही का शुक्रगुजार

अरे हाँ !
इतना जिस दिन होगा
उस दिन वहाँ से
हटा लेंगे अपना इश्तिहार..

आखिरकार और आखिरकार
वो क्यों चुप रहती भला
बोली तानकर भृकुटि
हिम्मत है तो घर से निकलो
पकड़ो थैले जाओ बाजार
लेकर आओ शाक शब्जी थोडा फलाहार
कुछ मीठे कुछ खट्टे और अचार...
यकीनन !
सांझ ढल आई थी
मौसम भी कुछ-कुछ
हो चला था खुशगवार..

अब मेरे शहरयार के सरकने की बारी थी
और मेरे इंतकाम को भड़कने की बारी थी
जाहिर है मेरे पास एक दुपहिया गाड़ी थी
जिसपर बैठ निकल पड़ी वो
और फिर देखता रह गया सारा का सारा संसार...



किशोर कुमार
मधेपुरा (बिहार)
2 Responses

  1. बेनामी Says:

    बहुत खूब Rakesh Uncle....


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