एक दुर्दांत शिखर पर
बतौर प्रहरी
कई सारे काम के बीच
समय निकालकर
नीदों को तजकर
मिट्टी की खुशबू
फूलों के महक
महले-दो-महल के माहौल
ख्यालों में गूँजते गोलियों
के धुन
देखते-देखते दरख्त में तब्दील
होते इंसा
मासूमियत को शर्मसार करते
कृत्य
कलह के बीज बोये भौरें
से बंदूकें
बरबस बेदम करते कानून की
पेचीदगियाँ
समस्त संप्रदायों के
सम्मोहन में लिप्त
नरसंहार के कुचक्र रचते शकुनी
से साये
शौक से जुल्म के
दरिया में कूदते कारिंदे
कौशल के दम्भ में दबी
बर्फीली घाटियाँ
मुठभेड़ करते नन्हें
परिन्दें
पंख फैलाए इच्छाओं के
बादल
कहर बरसाते कलकल की
नदियाँ
दीखते हैं सारे
मगर बिन सजग निगाहों की
कुछ नहीं बचता
पल में लुट लेते हैं
दहशत,
वैशियत और बामूरवत्त के
लोग
लोभ के कारण...
डॉ सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर
हंसराज
कॉलेज, नई दिल्ली
एक अच्छा प्रयास............. मुझे उम्मीद ये मधेपुरा जैसे जगह को .... काफी उम्मीदें ...........
बहुत मेहनत की गई है, शुभकामनाएं....................
मगर बिन सजग निगाहों की कुछ नहीं बचता
पल में लुट लेते हैं
दहशत, वैशियत और बामूरवत्त के लोग
लोभ के कारण...
सुंदर रचना
बहुत सार्थक और उत्कृष्ट प्रस्तुति
सुनीता जी को बधाई
बहुत-बहुत आभार इस साईट पर स्थान देने के लिए. भाग २ भी पोस्ट किया जा चुका है..