मन पखेरू फिर उड़ चला .... ना उड़े तो चाँद,बादल,सितारे,ग्रह - नक्षत्र हमारी कलम की सौगात कैसे बनेंगे ! जीवन की तपिश से लेकर,सुकून भरी बारिश तक की यात्रा कैसे होगी ! मन पखेरू तो रात में भी उड़ने से बाज
नहीं आता,पंखों की मजबूती सफलता के तिलस्मी दरवाज़े खोलती है और देवालय के पावन दीये की लौ बन जाती है .................ऐसे
ही एहसासों से मेरा मन पखेरू उड़ता हुआ गुजरा है सुनीता शानू के काव्य-संग्रह 'मन पखेरू उड़ चला' के साथ .
सुनीता के संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी भूमिका
जीवन के सत्य की स्याही में डूबोकर लिखी गई है,साथ ही रिश्तों के मजबूत धागों को एक साथ शब्दों के समर्पण का अर्घ्य दिया
गया है - यह समर्पण बच्चन जी के इस भाव को दोहराता है - क्या भूलूं क्या याद करूँ !
मैंने इस मन पखेरू की उड़ान को
धीरे धीरे देखा,गुना और समझा है . क्योंकि इस उड़ान में संकल्प,धैर्य,अकुलाहट,दृढ़ता,राग-अनुराग सबकुछ मन को बांधता गया .
संघर्ष की मिटटी बहुत उपजाऊ होती है - अपने माता-पिता की उसी
मिटटी का एक ज्वलंत उदाहरण हैं सुनीता और उनका मन पखेरू ....और उनके जीवन सहयात्री - जिनकी ऊँगली थाम सुनीता ने अपने जीवन
में आई हर पगडंडियों को रास्ते में तब्दील कर दिया .
प्रेम की पगडण्डी रास्ता बनी तब
कवयित्री ने शब्दों की रेखा बनाई और रंगों जैसे भाव भरे -
नेह की नज़रों से मुझको
ऐसे देखा आपने
मन-पखेरू उड़ चला फिर
आसमाँ को नापने ...."
हार मान लेने वाले पंख किसी शाखा पर विलीन हो जाते हैं,पर मकसद की आन हो तो वह धरती से आकाश तक इन्द्रधनुष की तरह अपनी सतरंगी आभा बिखेरता
है .
आभा के दूसरे पृष्ठ पर धरती के
सुर और स्वर हैं -
धरती क बेटों की आन-बान भूप सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी
!!"
प्रेम,उत्साह,उत्कट जिजीविषा कवयित्री के भावों का अद्भुत संगम है, जिसकी आत्मा में गंगा-यमुना-सरस्वती का उल्लसित प्रवाह है . थके पथिक की
उर्जा बन कवयित्री की कलम कहती है -
इन आँखों की कश्ती पर करते जो भरोसा
तो,
हर ग़म के समंदर से तुम पार उतर
जाते !!" ......
उड़ान एक मकसद है,जीने की प्रबल उत्कंठा,हर कोण से जीवन दर्शन .... सूक्ष्म कोण की दृष्टि ही कहती
है -
'कभी कभी आत्मा के गर्भ में
रह जाते हैं कुछ अंश
दुखदाई अतीत के
जो उम्र के साथ - साथ
फलते फूलते
लिपटे रहते हैं
अमर बेल की मानिंद ...'
संवेदना के स्वर शब्दों का लक्ष्यभेद
मानव के सुसुप्त मन - मस्तिष्क पर करते हैं -
'कहीं सुनी तो होगी
कहकहों के शोर में
किसी के सिसकने की आवाज़
तेज हंसी के बीच
किसी की खामोश मुस्कराहट ...'
सुनीता का यह संग्रह एक जीती जागती भावनाओं की वेणी है,जिसमें हर तरह के पुष्प गुंथे गए हैं, धरती से आकाश के मध्य की कशिश के रंगों से कुछ नम कुछ मुस्कुराते हुए ....
मेरी दृष्टि से जो रचना मुझे छू
गई वह है - 'सुबह का भूला'
रे मन,तू बन पखेरू
जाने कहाँ उड़ जाता है
आ तनिक विश्राम भी कर ले
ठहर नहीं पाता है ...
हर रात मुझे तू दिव्य-स्वप्न दे
जाने कहाँ ले जाता है
बैठ मेरे नैनों के साये
मेरी नींद उड़ाता है
....................'
रचनाओं की झलकियाँ आपको मन पखेरू से मिलने को अवश्य बाध्य करेंगी,मेरा विश्वास है और मेरे मन पखेरू की शुभकामनायें हर मन पखेरू के संग है ..
बहुत सुन्दर समीक्षा की और पढ़ने के लिए मन आतुर हो रहा है . बस ही पढ़ने की कोशिश कर रही हूँ . सुनीता शानू जी को बहुत बहुत बधाई इस पुस्तक के लिये.
नेह की नज़रों से मुझको
ऐसे देखा आपने
मन-पखेरू उड़ चला फिर
आसमाँ को नापने ...."
प्रेम,नेह व स्नेह-मन के ऐसे कोमल भाव है-यदि किसी को मिल जायें,तो वह जीवन में ऊँचाईयों को छू सकता है। बहुत ही सुंदर समीक्षा की गयी है-आपकी पुस्तक की-सुनीता जी ।शुभकामनाएं!
सुंदर, सधी हुयी समीक्षा ..... आप दोनों को बधाई
बढ़िया और संतुलित समीक्षा .........