मौत की नमाज़ पढ रहा है कोई
कीकर के बीज बो रहा है कोई
ये तो वक्त की गर्दिशें हैं बाकी
वरना सु्कूँ की नीद कब सो रहा है कोई

आईनों को फ़ाँसी दे रहा है कोई
सब्ज़बागों को रौशन कर रहा है कोई
ये तो बेबुनियादी दौलतों की हैं कोशिशें
वरना हकीकतों में कब लिबास बदल रहा है कोई

नक्सलवाद की भेंट चढ रहा है कोई
काट सिर दहशत बो रहा है कोई
ये तो किराये के मकानों की हैं असलियतें
वरना तस्वीर का रुख कब बदल रहा है कोई

आशिकी की ज़मीन हो या भक्ति के पद
यहाँ ना धर्म बदल रहा है कोई
मीरा की जात हो या कबीर की वाणी
सबमें ना उगता सूरज देख रहा है कोई
ये तो बुवाई हो रही है गंडे ताबीज़ों की
वरना फ़सल के तबाह होने से कब डर रहा है कोई


बिसात चौसर की बिछा रहा है कोई
दाँव पर दाँव चल रहा है कोई
ये तो अभिशापित पाँसे हैं शकुनि के
वरना यहाँ धर्मयुद्ध कब जीत रहा है कोई

 

वंदना गुप्ता, नई दिल्ली
1 Response
  1. Unknown Says:

    ये तो बुवाई हो रही है गंडे ताबीज़ों की
    वरना फ़सल के तबाह होने से कब डर रहा है कोई
    ............बहुत सुंदर ...वंदना जी को बधाई


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